“वह शाखें बगिया की वह झरोखे अपने कूचें के पारर गए है सूने |
जो थे आँगन महकते खुश्बुओ से वह तार होगये है उनकी चीखो से
येह क्या कर गए हाल इस रोशन चिराग का, की आहे भी उठ न सकी होकर भी असरार का
ना संग है ना ज़बानी है किसको सुनाओ ऐ येह दास्ताँ तन्हाई की अपनी हुसैन
जब कोई मेरा ग़म खवार नहीं याह खुदा तेरेह सिवा कोई मद्ददगार नहीं |
लो चलो अब वक्त है रुक्सत होने का आया कोई खबर तोह करो उस जुदा हुए
जिगर के टुकड़े को जिसको पाला था अपना समझके वोह भी ना हुआ जनाज़े में शरीक अपने
सिसकती है रूह मेरी, अकेला है जनाज़ा मेरा, रह गयी है यादें मेरी अब इस दुनिया में
लोह जा रही सोने अब एक लम्बी नींदिया में न होगा कोई मेरे पास इस मक़ाम में
है अब तनहा यह बदन उस रहे यार में|”
“लो वह आया है अब कबर पे मेरी अपने हालिया बयान लेके
जब ख़ाक होगयी है निशानिया मेरी रहे यार में |
जा अब तू संभाल अकेले घरौंदा मेरा जो होगया है वीरान तुम्हरी याद में
मैं अब दूर निकल गयी की वापस आना अब न होगा मुमकिन
जब थी ज़िंदा बेबसी की हालत में तब तुम क्यों न थे मेरे पास उस हाल में,
तू रहे सफर पे और ज़िन्दगी की उलझनों में मेरी सुध न ली इस दुनिया की दौड़ में,
अब क्या खाड़ा है मेरी कबर पे जब मैं चली गयी हु एक लम्बे सफर पे
जो अब न असकुंगी मैं सुकून को तेरे वापस रहे यार से |”
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