एक्सियत का दर्पण

यह बिखरे हुए शीशे इल्म के,

क्या कभी खुआइशो के चिराग जलते थे यहाँ |

आज चली है आंधी नफरत की, क्या कही खून बहेगा किसी आँगन की गोद में |

जो सितारों को देख कर रश करते थे कभी मुल्क पे अपने,

आज शीशो को देखके डर जाते है यहाँ |

ना मयस्सर हुई ज़िन्दगी, ना सुकून रहा किसी मोर् पे,

यहाँ तो मायूसी ने घर कर लिया, एक सियासत की चोट से |

येह बिखरे हुए शीशे ज़हीनो के, क्या कभी इल्म के चिराग जलते थे यहाँ |

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